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मांसाहार और Climate Change: स्वाद के पीछे छिपा महाविनाश

क्या आप जानते हैं, जलवायु परिवर्तन की एक बहुत बड़ी समस्या मांसाहार है? मांस खाने से जीवो की हत्या तो होती ही है साथ ही दुर-दराज के जंगलो में रहने वाले जनवारो का भी घर और उनका जीवन उनसे छीना जा रहा है जिनको हम देख नहीं पाते और ना ही इस बात की हमें कोई खबर होती है। स्वाद के लिये जिन पशुओं को पालते हैं उससे वातावरण को बहुत ज्यादा नुकसान हो रहा है। मांसाहार बहुत से तरीके से Climate Change जैसे विनाशकारी आपदा को अंजाम दे रहा है आइये बिस्तार में जानते है:

कुछ लोगों से मांसाहार के विरोध में सवाल किया जाए तो उनके पास एक बेहूदा जवाब होता है जैसे कि अगर मांसाहार नहीं करेंगे तो इन सभी जानवरों जैसे की मुर्गियों की संख्या पृथ्वी पर अधिक हो जाएगी और वो अपने पेट भरने के लिए हमारे अन्न खा जाया करेंगे। समुद्री जीवों के लिए भी इनके पास ऐसे ही मूर्खतापूर्ण तर्क होते हैं। उन्हें ये बात समझ ही नहीं आती कि पृथ्वी अपने-आप को संतुलित करना जानती है। इस बात पर कोई विचार नहीं करना चाहता कि सिर्फ इन जानवरों की जनसंख्या ही इतनी ज़्यादा क्यूं है बाक़ी के जानवर तो दिन-ब-दिन कम ही होते जा रहे हैं। मुर्गी, बकरी, भेड़, गाय और बैल, सुअर, बतख, ऊँट, मछली आदि जनवारो को एक बहुत बड़ी मात्रा में पाला जाता है और उनकी बेरहमी से हत्या कर दी जाती है ताकी हमें खाने के लिए मांस उपलब्ध कराया जा सके। मवेशियों को खिलाने के लिए जंगलों को काटा जा रहा है। हैरान करने वाला आंकड़ा यह है कि 70% खेती इसलिए की जाती है ताकि मवेशियों के लिए अन्न व चारा उगाया जा सके। अकेले सोया उत्पादन की बात करें तो 80% हिस्सा पशु (मुर्गी, सुअर, मछली आदि) को खिलाने में चला जाता है। सोया उगाने के लिए अमेज़न जैसे जंगलों की कटाई हो रही है। मांसाहार की वजह जंगली जानवरों के निवास स्थान में हस्तक्षेप किया जा रहा है। हर दिन कई जानवर अपना घर खोने से व उचित वातावरण न मिलने से विलुप्त हो रहे हैं।

पानी की बात करें तो चारा उगाने में सबसे ज्यादा पानी की खपत होती है। 1 किलो बीफ उत्पादन के लिए लगभग 15,000 लीटर पानी लगता है जबकि 1 किलो आलू के लिए सिर्फ 250 लीटर पानी लगता है। दुनिया के पीने योग्य पानी का 20 से 30% पशुपालन (मुर्गी, सुअर, मछली आदि) में खपत होता है। आने वाले समय में पानी की समस्या भयावह रूप लेने वाली है और यहां किसी को समझ नहीं आ रहा है कि सिर्फ स्वाद के खातिर पानी को बहुत बड़ी मात्रा में बर्बाद किया जा रहा है।

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पशुपालन वातावरण को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है, जिसकी ओर आमतौर पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। पशुपालन से मीथेन गैस निकलती है जो कार्बन-डाइ-ऑक्साइड से 25 गुना ज़्यादा ग्रीनहाउस इफ़ेक्ट करती है। जब गाय, भैंस, बकरी आदि पशु भोजन पचाते हैं तो उनके पेट से मीथेन गैस निकलती है। एक अकेली गाय की बात करें तो साल भर में लगभग 100 किलो मीथेन गैस छोड़ती है और इनके लिए जो चारा उगाया जाता है, उसमें रासायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है, जिससे नाइट्रस ऑक्साइड (N₂O) जैसी ख़तरनाक गैसें निकलती हैं, जो वायुमण्डल में जाकर Global Warming को बढ़ावा देती है। ग्लोबल वार्मिंग के समाधान के लिए कई तारिके के उपाय किए जा रहे हैं लेकिन इस बात पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है।

मांसाहार को लेकर सरकार को बड़े क़दम उठाने की ज़रूरत है, साथ ही आम जनता को भी इस पर विचार करके जागरूकता दिखाने की आवश्यकता है। इन सभी तथ्यों को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। मांसाहार का सेवन करना कोई व्यक्तिगत मामला नहीं है, इसमें हस्तक्षेप करना ज़रूरी है। यहाँ बात कुछ जानवरों की नहीं बल्कि पूरी पृथ्वी की है। यह बात सबको समझना आवश्यक है की हम अपने स्वाद के ख़ातिर पृथ्वी तक को ख़तरे में डाल रहे है

 

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