क्लाइमेट चेंज का समाधान क्या है? आज की बेहोशी, कल का विनाश बन सकती है

क्लाइमेट चेंज का समाधान क्या है?

क्लाइमेट चेंज को इंसान अपनी बेहोशी में सीधे चुनौती दे रहा है और क्लाइमेट चेंज का समाधान भी इंसान के ही हाथ में है. हमें यह समझना बहुत जरुरी हैं कि मानव और प्रकृति के बीच संबंध क्या है? इंसान विकास की अंधी कामना में प्रकृति को रौंदे जा रहे है बिना यह जाने कि इंसान भी प्रकृति का ही हिस्सा है. प्रकृति को हानि पहुचाना अप्रत्यक्ष रूप से इंसान स्वयं को ही हानि पहुचाता है. हमारी अंधी कामनाओ ने पृथ्वी के संतुलन को बद-से-बदतर कर दिया है जिसका भयंकर परिणाम हम अपनी पीढियों को भुगतने के लिए छोड़कर जा रहे है. क्लाइमेट चेंज कोई एक दिन, एक महीने या एक साल का नही बल्कि दशको से चली आ रही हमारे गलत जीवन जीने का परिणाम है. क्लाइमेट चेंज का समाधान किसी सरकार या व्यक्ति विशेष का नही बल्कि पूरी मानवता की सामूहिक जिम्मेदारी उठाकर ही किया जा सकता है. क्लाइमेट चेंज का तकनिकी समाधान अवश्य है परन्तु बदलाव की संभावना बहुत छोटे स्तर की होगी जबकि इंसानों को प्रकृति से सम्बंधित विषयो पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है तभी क्लाइमेट चेंज का समाधान बड़े स्तर पर किया जा सकता है, इस आर्टिकल में हम जानेंगे कि आखिर क्या है क्लाइमेट चेंज का समाधान?

1. Carbon Emission को घटाकर

Carbon Emission को कम करके क्लाइमेट चेंज का समाधान किया जा सकता है, Carbon Emission का मतलब वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और बाकि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है जिसका स्रोत मानवीय गतिविधिया है जो क्लाइमेट चेंज को बढ़ावा देती है. जीवाश्म ईंधन जैसे कोयला, पेट्रोल, डीजल और फॉसिल फ्यूल का इस्तेमाल करते है तो CO2 की मात्रा वातावरण में बढ़ने लगती है जिसे Carbon Emission कहते है.

आज भी भारत देश 70% बिजली का उत्पादन कोयला जलाकर करता है जो की एक गंभीर पर्यावरणीय चिंता का विषय है. कोयला आधारित बिजली उत्पादन से 45% कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) और अन्य प्रदूषक गैसें बड़ी मात्रा में निकलती हैं, जो जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण को बढ़ावा देती हैं। फक्ट्रियो आदि से लगभग 25% और ट्रांसपोर्ट से लगभग 13-14% कार्बन का उत्सर्जन होता है. कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) समेत बाकि ग्रीन हाउस गैसों की सांद्रता बढ़ रही है जो सूर्य से आने वाली किरणों को पकड़ लेती है और उसे वायुमंडल से बाहर नही जाने देती जिससे वायुमंडल गर्म होने लगता है और पृथ्वी की सतह का तापमान भी बढ़ने लगता है जिसका परिणाम अधिक गर्मी के रूप में हम अपने आस-पास देखते है.

क्लाइमेट चेंज का समाधान CO2 को कम करके ही किया जाना संभव है.
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Carbon Emission को कम करने के लिए 12दिसम्बर 2015 को Peris Agreement किया गया था जिसका उद्देश्य 2030 तक पृथ्वी के तापमान को 2°C से नीचे और 1.5°C तक सिमित रखा जाय, परन्तु यह समझौता असफल होता दिखायी दे रहा है. कार्बन की मात्रा वायुमंडल में बढ़ती ही जा रही है. भारत के लक्ष्य की बात करे तो 2070 तक नेट जीरो कार्बन एमिशन यानी की वायुमंडल में कार्बन की मात्रा जीरो कर देना या जितना उत्सर्जन किया जा रहा है उतना ही कार्बन सिंक भी उपलब्ध हो जो कार्बन को सोखकर वायुमंडल में उसकी मात्रा को बहुत कम कर दे, जबकि 2070 बहुत दूर की बात हो गई है हमने 2024 में ही 1.5°C के तापमान का रिकॉर्ड तोड़ दिया था. सरकार को Renewable energy (सौर और पवन ऊर्जा) के विकास पर जोर देने की आवश्यकता है जिससे कोयले पर निर्भरता कम हो सके. फक्ट्रियो व कंपनियों पर सक्त कार्बन टैक्स को लागू करना चाहिए ताकि कार्बन एमिशन कम किया जा सके. आम आदमी को भी जागरूपता दिखाना चाहिए और अपने कॉर्बन फुटप्रिंट पर ध्यान देने जरुरत है.

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2. कार्बन सिंक को बचाकर

कार्बन सिंक एक प्राकृतिक सुरक्षा कवच होता है जो वायुमंडल से कार्बन को सोंखकर उनका संग्रह करता है और जीवो के अनुकूल वातावरण को तैयार करता है. कार्बन सिंक का मुख्य स्रोत जंगल, समुद्र, मिट्टी और ग्रासलैंड होता है जो वायुमंडल में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड को सोंखकर उनकी मात्रा को संतुलित करता है जिससे Green House Effect कम हो जाता है. पृथ्वी के तापमान को अनुकूलन बनाने में कार्बन सिंक का बहुत बड़ा योगदान होता है. जानते है कार्बन सिंक का बचाव कैसे किया जा सकता है,

  1. वृक्षारोपण व पुनर्वंरोपन: जब नए पौधे लगाये जाते है तो उसे “वृक्षारोपण” कहा जाता है और पुराने वनों को फिर से उगाने को प्रक्रिया को “पुनर्वंरोपन” कहते है. एक परिपक्व वृक्ष एक साल में लगभग 22kg कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करता है और एक एकड़ जंगल साल भर में लगभग 2.5 टन कार्बन डाइऑक्साइड को वातावरण से सोंखता है. वायुमंडल में मौजूद कुल कार्बन डाइऑक्साइड का लगभग 25–30% भाग पेड़ों और वनों द्वारा अवशोषित किया जाता है।  केवल वनों की कटाई रोकना पर्याप्त नही है बल्कि पुराने वनों को भी पुनः निर्मित करना होगा. एक स्थान को जंगल तभी कहा जाता है जब वहा पर बायोडायवर्सिटी पाया जाए. इससे स्पष्ट है की वृक्ष लगाने मात्र से वन का विकास नही होगा बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र का पाया जाना भी आवश्यक है.

  2. समुद्र की  रक्षा: समुद्र दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन सिंक होता है जो लगभग 30% तक कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करता है. समुद्र में कोरल लीफ( मुंड की चट्टानें ) और प्लैंकटन पाए जाते है जो समुद्र में कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने में सहायता करता है. नदियों में बढ़ता प्रदुषण सीधे समुद्र के पारिस्थिकी तंत्र को प्रभावित करता है जिसका कारण मानवीय गतिविधिया है. समुद्र के गहराई में पीछे रहस्यों को जानने के लिए सरकारे Deep Sea Mining को स्वीकृति दे रही है जोकि जैव विविधता के लिए खतरा है. लोगो की बढती मांग भोजन, तेल, दवाओं और व्यापार के लिए मछली की अधिक खपत हो रही है जिसके परिणामस्वरुप Overfishing किया जा रहा है जो समुद्र की खाद्य श्रृंखला (food chain) को प्रभावित करता है. मानव की गतिविधिया समुद्र के अवशोषक क्षमता को कम कर रहा है जिससे Climate Change हो रहा है. उपभोक्ताओं को जागरूकता दिखाकर मछली उत्पादों पर निर्भरता को कम करने की आवश्यकता है. क्लाइमेट चेंज का समाधान के रूप में सरकारों को Deep Sea Mining, अवैध मछली पकड़ने और समुद्र के महत्त्व को प्राथमिकता देकर बेहतर समुद्री निगरानी की विषयों पर कदम उठाना चाहिए.

  3. पुनर्योजी कृषि या (Regenerative Agriculture): मिट्टी वातावरण का लगभग 10-15% कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करता है. यह वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड को सोखकर उसे मुख्यतः कार्बनिक पदार्थो में संगृहीत करता है लेकिन जब हम मिट्टी की ज्यादा जुताई करते है तो मिट्टी में संगृहीत कार्बन निकल जाता है और उसके अवशोषित करने की क्षमता में भी कमी आ जातीं है. No-till Farming पर ध्यान देने की जरुरत है इससे मिट्टी का कटाव कम होता है और मिट्टी में उपस्थित कार्बनिक पदार्थ भी बने रहते है. ऐसे ही हम Organic Compost और Cover Crops जैसे चीजो पर ध्यान देकर मिट्टी के कार्बन को बनाये रखा जा सकता है और Greenhouse House Effect को कम करके क्लाइमेट चेंज का समाधान किया जा सकता है.

3. प्रकृति के अधिकारों को महत्त्व देकर

Climate Justice के लिए कदम उठाने का समय आ गया है.

इंसान अपनी विकास की दौड़ में इतना अँधा हो गया है कि उसने प्रकृति के मौलिक अधिकारों को लगभग भुला दिया है. इंसान प्रकृति को केवल भोग का संसाधन मात्र मनाकर उसका उपभोग कर रहा है जबकि पृथ्वी संसाधन नहीं समस्त जीवन का आधार है. पृथ्वी को हानि पहुँचाने का मतलब हम स्वयं के भविष्य को खतरे में डाल रहे है. आजकल विकास हेतु अमेजन जैसे जंगलो को भी काटा जा रहा है जिसे पृथ्वी का ह्रदय(Lungs of the Earth) कहा जाता है, इंसान के ह्रदय में ज़रा सा छेद होने पर जीवन का संभावना नही बचती है वैसे ही पृथ्वी के ह्रदय के साथ छेडछाड करने पर समस्त जीवन की कल्पना करना मुर्खतापूर्ण विचार है.

इंसान अपने स्वार्थ के खातिर नदियों को गन्दा करना, पहाड़ो को तोड़ना, पेड़ो और जंगलो को काटना और गहरे समुद्रो में हस्तक्षेप कर रहा है. वर्तमान समय में सरकारे प्रकृति को संपत्ति के रूप में देखती है न की अधिकारों के रूप में. बड़ी-बड़ी कम्पनियां अपने हिसाब से नियम बनती है जिसे स्वार्थवश सरकारे आसानी से स्वीकृति दे देती है अब प्रकृति की रक्षा की जिम्मेदारी आम जनता पर आती है जो आर्थिक और क़ानूनी रूप से बहुत कमजोर है जिसके वजह से आम जनता प्रकृति के प्रति जिम्मेदारी उठाने में रूचि नही दिखाती है. प्रकृति के अधिकारों का शोषण का परिणाम हम क्लाइमेट चेंज के रूप में भुगदेंगे. हर किसी को प्रकृति के अधिकारों के महत्त्व समझाना चाहिए और उसे एक नागरिक की तरह देखने की ज़रूरत है न की संसाधन की वस्तु तभी क्लाइमेट चेंज का समाधान संभव हो पायेगा.

4. संस्कृति की विनाशकारी दृष्टिकोण को बदलकर:

क्लाइमेट और इससे जुडी सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक संकट एक विनाशकारी दृष्टिकोण का परिणाम है. जो पृथ्वी पर जीवन के लिए चुनौती बनता जा रहा है. अधिकांशतः हमारा यह सोचना होता है कि प्रगति और आर्थिक विकास की दिशा में उठाये गए कदम समझदारी से आगे बढ़ रहे है. हमारी यही मान्यता हमारे व्यक्तिगत और सामूहिक व्यवहारों को दिशा देती है. जबकि प्रकृति को हानि पहुचाकर जीवन की संभावना को कम कर रहे है. हमारी यही सोच अन्य जीव-जंतु, पेड़-पौधों के विलुप्ति का कारण तो है ही साथ ही इंसानों के भी विलुप्ति का भी कारण बनेगा. 

क्लाइमेट चेंज का समाधान अपनी सांस्कृतिक मान्यताओ को बदलकर किया जाना अवश्य संभव है. सबसे पहले इस भ्रम को दूर किया जाना चाहिए की प्रकृति और बाकि जीव-जंतुओ से इंसान श्रेष्ठ है यह भ्रम पृथ्वी के शोषण का बहुत बड़ा कारण है. प्रकृति को निर्जीव वस्तु समझाना और इसे जैसा चाहे वैसा इस्तेमाल करने की सांस्कृतिक धारणा बन गई है. इंसान अपनी समृद्ध भविष्य की तलाश में उन जानवरों के प्रति कोई जिम्मेदारी नही उठाता है जो हमेशा के लिए विलुप्त हो रहे है. इंसान के अस्तित्व की निर्भरता पृथ्वी से जुड़ा इस बात को स्वीकार करने में ही समझदारी है. पृथ्वी का अपना नियम होता है और इंसान भी उसी नियमो के अंतर्गत आता है अतः पुरानी सांस्कृतिक दृष्टिकोण को बदलने से ही क्लाइमेट चेंज का समाधान की ओर सही कदम बढ़ाना साबित होगा और इस विनाश को भी रोका जा सकता है.

5. शोषक आर्थिक प्रणाली का बदलाव

दुनियाभर की सरकारे जीडीपी बढ़ाने के लिए जिन तरीको का प्रयोग कर रहे है उसका आधार प्रकृति के शोषण पर टिका है. असीमित विकास की भूख में सालभर का संसाधन वर्ष के समाप्त होने से पहले ही ख़त्म कर दिया जाता है. आज दुनिया की 20% आबादी ही 80% संसाधनों की खपत कर रही है और सिर्फ 10% लोग आधे से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है. जो लोग पहले से ही आर्थिक रूप से कमजोर है उनपर ही क्लाइमेट चेंज का बुरा असर पड़ने वाला है. आज की अर्थव्यवस्था प्रणाली कुछ ऐसी है की अमीर लोग और अमीर होते जा रहे है और गरीब जनता और गरीब होती जा रही है यह कहना ठीक ही रहेगा की समस्या सिर्फ पर्यावरणीय ही नही बल्कि असमानता और संसाधनों की भारी खपत ने इस कगार पर खड़ा कर दिया है.

विषय सोचनीय है कि क्या हम सच में विकास कर रहे है? आर्थिक विकास को ही विकास मानने से कुछ नही होगा असली विकास तब होगा जब जीडीपी के साथ Environmental Cost भी निकाला जाय. एक फैक्ट्री ज्यादा उत्पादन करती है तो देश की जीडीपी बढ़ती है लेकिन वह फैक्ट्री नदियों को गन्दा कर रही है वनों को काटती है और वायु प्रदुषण करती है उसका हिसाब सरकार नही मांगती है फक्ट्रिया खुलेआम नदियों मे कचरा बहा देती है उसपर कोई सवाल नही करता है. 

क्लाइमेट चेंज जैसे संकटो से पर्यावरण को ही नही बल्कि अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुचाता है. भारत में हर साल सिर्फ वायु प्रदुषण के कारण जीडीपी का करीब 1.4% नुकसान होता है और वर्ष 2021 बाढ़, सुखा, तूफ़ान से दुनियाभर में $250 बिलियन डोलर से ज्यादा का नुकसान हुआ था. सरकारे जीडीपी के भारी नुकसान को उठाने को तैयार है लेकिन मूल समस्या पर कदम उठाने की जिम्मेदारी नही ले रही है. Green GDP जैसी विचारधारा को लाने की बहुत आवश्यकता है जिससे जीडीपी से पर्यावरणीय नुकसान को घटाकर असली विकास किया जा सके और क्लाइमेट चेंज का समाधान सही तरीके से किया जा सकेगा.

6. Ecosystem को समझकर

क्लाइमेट चेंज का समाधान तब तक संभव नही है जब तक इकोसिस्टम के विषय का ज्ञान के प्रति साधारण जनता जागरूग ना हो. इकोसिस्टम प्रकृति की ऐसी व्यवस्था होती है जिसमे जीव(पेड़-पौधे, जीव-जंतु) और अजीव(पानी, मिट्टी, हवा) अवयव एक-दुसरे पर निर्भर रहते है.

सभी इकोसिस्टम जैसे- जंगले, समुद्र, झीलें, ग्रासलैंड आदि अपने-आप में अनूठा संतुलन बनाये रखते है. इकोसिस्टम कई पेड़-पौधों और जानवरों का झुण्ड नहीं होता बल्कि प्रकृति का जीवन का चक्र होता है जहाँ पेड़-पौधे, हवा, मिट्टी आदि एक-दुसरे से परस्पर सम्बन्ध रखते है. 

इकोसिस्टम का यह चक्र जब भी असंतुलित होता है तो क्लाइमेट चेंज जैसी बड़ी समस्या उत्पन्न होती है. इंसान भी प्रकृति के इसी चक्र का ही एक हिस्सा मात्र है इस चक्र का संतुलित रहना बहुत आवश्यक है किसी भी एक जाति का बढ़ना या कम होना संतुलन को अव्यवस्थित कर देती है.

पृथ्वी के महत्त्व को जानने वाले लोग पृथ्वी को बचाने में जुट गए है.इंसान की आबादी दुनियाभर में सबसे ज्यादा है भ्रमवश इंसान स्वयं को विशेष समझ रहा है और बाकि जीव-जन्तुओ के महत्त्व को अनदेखा कर रहा है. यह किसी भी प्रकार से प्रकृति के इकोसिस्टम के अनुकूल नही है जिसका परिणाम विनाशकारी सिद्ध हो रहा है.

इंसान जंगलो को काट रहा है ताकि वहाँ खेती किया जा सके और यह स्वयं के भोजन प्रबंध के लिए नही बल्कि उन जानवरों के लिए किया जा रहे जिसे वह खाता है. गाय, बकरी, भेड़, मुर्गा आदि इन जानवरों की संख्या में वृद्धि प्राकृतिक नही है बल्कि स्वयं इंसान है जो इन्हें कृत्रिम रूप से पैदा कर रहा है जिसकी आवश्यकता ही नही है बल्कि प्रकृति के संतुलन पर बुरा प्रभाव डाल रहा है. 

वनों की अन्धाधुन कटाई, प्रकृति के चक्र को बरबाद करना, निर्दोस पशुओ के साथ अत्याचार, जीवों की विलुप्ति आदि यह सभी क्रियाकलाप सिर्फ स्वाद के खातिर किया जाता है. क्लाइमेट चेंज का बुरा परिणाम हम स्वयं के साथ-साथ आने वाली निर्दोष पीढियों को देकर जायेंगे. इकोसिस्टम का ज्ञान होना हर व्यक्ति के लिए बहुत जरुरी है प्रकृति के जीवन चक्र को समझकर ही क्लाइमेट चेंज का समाधान हो सकता है. 

निष्कर्ष: केवल अपने लाभ के लिए पृथ्वी की बर्बादी एक मुर्खातापूर्ण तर्क है धरती की सेहत को अनदेखा करने पर आने वाले समय में हमारा यह लाभ कर्ज़ बनकर लौटेगा जैसे- बीमारी, आपदा और असमानता के रूप में। क्लाइमेट चेंज भी हमारी ही बेपरवाही का नतीजा है जिसे हम कई अलग-अलग तरीके से देखेंगे. इसलिए ज़रूरी है कि हर विकास परियोजना के साथ उसकी “Environmental Cost” का मूल्यांकन किया जाए और प्रकृति को उसके अधिकारों को वापिस किया जाय तभी हम एक सुरक्षित, समृद्ध और टिकाऊ भविष्य की ओर बढ़ सकेंगे|

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